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उपन्यास >> भोला और चन्दन

भोला और चन्दन

आशा सिंह

प्रकाशक : अनामिका प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8983
आईएसबीएन :9788187770107

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संवेदनशीलता जब किसी उत्कृष्ट रचना का रूपाकार अथवा शक्ल अख्तियार करती है तो कोई ‘भोला और चंदन’ जैसी औपन्यासिक कृति सम्भव हो पाती है।

Bhola Aur Chandan - Asha Singh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तावना


संवेदनशीलता जब किसी उत्कृष्ट रचना का रूपाकार अथवा शक्ल अख़्तियार करती है तो कोई ‘भोला और चंदन’ जैसी औपन्यासिक कृति सम्भव हो पाती है।

आशा सिंह की प्राणवन्त एवं जीवन्त शब्दों की इस रचना में ज़िन्दगी का ताप तो है ही वह संस्पर्श भी है, जो मनुष्य को मनुष्य बनाए रखता है, एक गँवई मन भी है जो अपनी आत्मा के अतल में गाँव की सुगन्ध को सँजोए रखता है। यह कहानी है भोला और चंदन के आत्मीय रिश्तों की। भोला बाल हाथी है और चंदन एक भावप्रवण किशोर। चंदन में धीरे-धीरे बड़े हो रहे एक बच्चे की फूलों जैसी बेहद नरम एवं मुलायम साँसें हैं, भोला इस साँस के एक-एक उतार-चढ़ाव को समझता है।

चंदन फीलवान का बेटा तो है ही, एक भला मानुस भी है। चंदन और भोला के परस्पर अपनेपन से आज के आदमी को भी बहुत कुछ सीखने को मिल सकता है। यह महसूस करना भी विलक्षण है कि एक जानवर किस तरह मनुष्य से बढ़कर कम्युनिकेट करता है और तादात्म्य का ऐसा तंतु ढूँढकर लाता है, जिस पर मनुष्यता भी रश्क करने लग जाय।

आशा जी ने किशोर मनोविज्ञान, गाँव का जीवन और पशु की भावप्रवणता को जैसे एक सूत्र में पिरोकर रख दिया है। यहाँ पर आकर ‘मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति’ जैसी उक्तियाँ भी बेमानी लगने लगती हैं, क्योंकि चंदन के रूप में एक भला आदमी तो दिखायी देता ही है, स्वयं भोला, जो एक पशु है, भी इन्सान के ठीक बगल में खड़ा नज़र आता है और इन्सानियत का सघन परिचय देता है।

इस बेहद सुकुमार विषय को एवं इसके कथ्य को अत्यन्त सजग, सतर्क एवं जागरूक शिल्प के साथ आशा जी ने उठाया है और एक अन्यतम, अप्रतिम, अविस्मरणीय व अभिभूत कर देने वाली रचना का चेहरा प्रदान कर दिया है।

निश्चित ही हिन्दी जगत इस किशोर मन के उपन्यास को किसी थाती की ही तरह सहेजकर एवं सँजोकर रखना चाहेगा।

- यश मालवीय


भूमिका


बचपन में जब भी नाना जी के घर जाने का अवसर मिलता था, उनके हाथी से मुलाकात होती थी। पुराने जमाने के जमीदार; हाथी पालना शान का प्रतीक था। हम बच्चों को बड़ा आश्चर्य होता। कार के इस युग में हाथी पालने की नाना जी को क्या सूझी। हम तर्क वितर्क करते-‘नाना हाथी पालने से क्या फायदा, ट्रैक्टर रखिए, कार रखिए।’ बूढ़े नाना सुनते, हँस कर कहते- ‘हाथी शान के लिए है।’

छोटा हाथी भोला और उसका पीलवान (महावत) चंदन वास्तव में बड़े शरारती थे। हम बच्चों को पीठ पर बैठा देता था, उतारता ही न था; जब तक हम लोगों की माताएँ आकर चन्दन को कुछ दक्षिणा न दें। भोला बाजार में जाकर खड़ा हो जाता, जब तक हम बच्चे फल या मिठाई का भोग न चढ़ायें, टस-से-मस न होता। बड़ी हँसी होती। हम लोगों के पीछे-पीछे भागता।

जमींदारी समाप्त हो गयी, मामा लोग अलग हो गये। हाथी को चुपचाप बेच दिया गया। भोला सिर्फ मेरे जेहन में शेष रहा। जब-जब उसकी याद आयी, कुछ लिख दिया। भोला एक युग का प्रतीक है। आपसी प्रेम, सम्मान, गाँव की प्रतिष्ठा है। तब न पार्टी बनी थी न राजनीति थी। एक-दूसरे से घृणा नहीं थी। पेशा जाति का नहीं, कर्म-धर्म का प्रतीक था। सब एक-दूसरे से माला के फूल की नाईं गुँथे थे।

भोला चला गया, वह युग भी उसके साथ चला गया। शेष रही खट्टी-मीठी यादें, जो आपके सामने प्रस्तुत हैं।

यह कथा काल्पनिक नहीं है वरन मेरे बचपन की सच्ची घटना पर आधारित है। आज के 60-70 साल पहले के गाँव और उसकी संस्कृति की सच्ची झलक दिखलाती हुई।

- आशा सिंह

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